
विंध्य के शेर को भुला बैठी कांग्रेस: दादा श्रीनिवास तिवारी की पुण्यतिथि पर सन्नाटा, गुटबाजी से टूटेगी पार्टी?
रीवा की धरती पर कभी राजनीति के सूरज की तरह चमकने वाले स्वर्गीय दादा श्रीनिवास तिवारी की पुण्यतिथि, जो 19 जनवरी को मनाई गई, कांग्रेस पार्टी की उदासीनता और गुटबाजी की तस्वीर पेश कर गई। एक ऐसा आयोजन, जो किसी समय कांग्रेस के लिए संजीवनी माना जाता था, आज सवालों के घेरे में है। स्वर्गीय श्रीनिवास तिवारी, जिन्हें विंध्य के शेर और अमहिया दरबार के राजा के नाम से जाना जाता था, उनकी लोकप्रियता के किस्से आज भी हर व्यक्ति की जुबान पर हैं। वह वह नेता थे, जिनके एक शब्द पर ठहरे हुए काम आगे बढ़ जाते थे। अमहिया दरबार की कहानियां, जहां से लोगों की उम्मीदें कभी खाली नहीं लौटीं, आज एक दर्दभरी खामोशी में डूबी हैं। पुण्यतिथि के मौके पर परिवार द्वारा आयोजन तो हुआ, लेकिन कांग्रेस पार्टी के कई दिग्गज नेता नदारद रहे। हैरत की बात यह है कि जो नेता मंचों पर दादा का नाम लिए बिना अपनी बात शुरू नहीं करते थे, वही इस बार न केवल आयोजन से गायब रहे, बल्कि सोशल मीडिया पर भी चुप्पी साधे रहे। चुनावी मौसम में स्वर्गीय दादा का नाम लेना, उनकी उपलब्धियों को भुनाना और उनकी छवि का इस्तेमाल करना कांग्रेस का पुराना तरीका रहा है।
लेकिन इस बार यह चुप्पी सिर्फ कांग्रेस के भविष्य पर ही नहीं, बल्कि उसकी मौजूदा दशा और दिशा पर भी सवाल खड़े करती है। यहां तक कि सोशल मीडिया पर भी कोई पोस्ट, श्रद्धांजलि, या तस्वीर साझा नहीं की गई। जो नेता अक्सर हर छोटी-बड़ी बात पर सुर्खियां बटोरने के लिए सक्रिय रहते हैं, उनकी यह खामोशी पार्टी की अंदरूनी गुटबाजी और नेतृत्व की कमजोरियों को उजागर करती है। कांग्रेस पार्टी की रीवा में पहचान और सत्ता हमेशा से स्वर्गीय दादा श्रीनिवास तिवारी के नाम पर टिकी रही है। लेकिन आज पार्टी गुटबाजी के ऐसे दलदल में फंसी है, जहां से निकलना मुश्किल लग रहा है। एक पुरानी कहावत याद आती है: जब किसी के विनाश का समय आता है, तो सबसे पहले उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। कांग्रेस की मौजूदा स्थिति इस कहावत को चरितार्थ करती नजर आती है।
वह दौर था जब स्वर्गीय दादा का अमहिया दरबार हर जरूरतमंद के लिए एक भरोसेमंद स्थान था। लोग बड़ी उम्मीदों के साथ उनके पास जाते थे, और दादा का सिर्फ इतना कहना कि जाओ, काम हो जाएगा, उनके भरोसे को नई ऊंचाई देता था। यह विश्वास ही था जिसने दादा को जनता के दिलों में अमर बना दिया। लेकिन आज वही कांग्रेस, जिसने कभी उनके नाम से राजनीति चमकाई, दादा को भुला बैठी है। क्या यह पार्टी की गिरती साख और गुटबाजी का संकेत है? रीवा में कांग्रेस की इस उदासीनता और गुटबाजी के बीच बड़ा सवाल यह है कि क्या पार्टी यहां अपना वर्चस्व बचा पाएगी? या फिर यह चुप्पी और अंदरूनी कलह कांग्रेस को धीरे-धीरे खत्म कर देगी? क्या कांग्रेस दादा के नाम को सिर्फ चुनावी मौसम तक सीमित रखेगी, या उनकी विरासत को सही मायनों में सम्मानित करेगी?
रीवा की जनता, जो कभी दादा के अमहिया दरबार के वचन पर अपनी दुनिया बसा लेती थी, अब यह देख रही है कि कांग्रेस खुद अपनी जमीन खोने की कगार पर है।
आने वाला समय तय करेगा कि कांग्रेस गुटबाजी के इस दलदल से बाहर निकलेगी या यह पार्टी भी विंध्य में इतिहास बनकर रह जाएगी।